गुरुवार, 21 अप्रैल 2011

मेरा यह दुख जीवन के समाप्त होने के साथ ही जाएगा।

अब्राहम लिंकन ने बहुत 
गरीब परिवार में जन्म लिया था। अत्यंत निर्धनता की स्थिति में भी उन्होंने किसी तरह मेहनत-मजदूरी करते हुए अपनी पढ़


ाई पूरी की और अमेरिका के राष्ट्रपति बने। वह अपने देश की जनता के बीच काफी लोकप्रिय थे। लोग उनका काफी सम्मान करते थे। इतने ऊंचे पद पर पहुंच कर भी उनमें काफी विनम्रता थी, लेकिन उनके चेहरे पर अकसर उदासी छायी रहती थी। उत्सुकतावश एक महिला ने साहस करके उनसे इसका कारण पूछ ही लिया। 

लिंकन थोड़ी देर चुप रहे, फिर गहरी सांस लेकर बोले, 'कितना अच्छा होता कि आप मुझसे यह प्रश्न न पूछतीं। जब मैं छोटा ही था तो मैं अपनी मां के स्नेह से वंचित हो गया। मेरी मां बहुत धर्मपरायण और संस्कारी थीं। यह मेरी मां की सीख थी कि पहले दूसरों के बारे में विचार करो और बाद में अपने बारे में सोचो। मैं यही करता हूं। आज मुझ में जो कुछ अच्छाई नजर आ रही है उसका श्रेय केवल मेरी मां को जाता है। इतनी अच्छी मां को बचपन में खोकर आज तक उसे भुला नहीं पाया हूं और इसी कारण दुखी रहता हूं। लगता है मेरा यह दुख जीवन के समाप्त होने के साथ ही जाएगा। आप नहीं जानतीं कि अमेरिका का सब से अधिक सुखी समझा जाने वाला आदमी अंदर से कितना दुखी है।' लिंकन यह कहते-कहते बहुत भावुक हो गए और कुछ अधिक न बोल सके। लिंकन की बात सुन कर वह महिला शांत हो गई और मन ही मन उनकी मां की प्रशंसा करती चली गई।

कन्यादान


यह घटना उस समय की है , जब क्रांतिकारी रोशन सिंह को काकोरी कांड में मृत्युदंड दिया गया। उनके शहीद होते ही उनके परिवार पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा। घर में एक जवान बेटी थी और उसके लिए वर की तलाश चल रही थी। बड़ी मुश्किल से एक जगह बात पक्की हो गई। कन्या का रिश्ता तय होते देखकर वहां के दरोगा ने लड़के वालों को धमकाया और कहा कि क्रांतिकारी की कन्या से विवाह करना राजद्रोह समझा जाएगा और इसके लिए सजा भी हो सकती है।

किंतु वर पक्ष वाले दरोगा की धमकियों से नहीं डरे और बोले, ‘यह तो हमारा सौभाग्य होगा कि ऐसी कन्या के कदम हमारे घर पड़ेंगे, जिसके पिता ने अपना शीश भारत माता के चरणों पर रख दिया।वर पक्ष का दृढ़ इरादा देखकर दरोगा वहां से चला आया पर किसी भी तरह इस रिश्ते को तोड़ने के प्रयास करने लगा।

जब एक पत्रिका के संपादक को यह पता लगा तो वह आगबबूला हो गए और तुरंत उस दरोगा के पास पहुंचकर बोले, ‘मनुष्य होकर जो मनुष्यता ही जाने वह भला क्या मनुष्य? तुम जैसे लोग बुरे कर्म कर अपना जीवन सफल मानते हैं किंतु यह नहीं सोचते कि तुमने इन कर्मों से अपने आगे के लिए इतने कांटे बो दिए हैं जिन्हें अभी से उखाड़ना भी शुरू करो तो अपने अंत तक उखाड़ पाओ। अगर किसी को कुछ दे नहीं सकते तो उससे छीनने का प्रयास भी करो।संपादक की खरी-खोटी बातों ने दरोगा की आंखें खोल दीं और उसने सिर्फ कन्या की मां से माफी मांगी, अपितु विवाह का सारा खर्च भी खुद वहन करने को तैयार हो गया।

विवाह की तैयारियां होने लगीं। कन्यादान के समय जब वधू के पिता का सवाल उठा तो वह संपादक उठे और बोले, ‘रोशन सिंह के होने पर मैं कन्या का पिता हूं। कन्यादान मैं करूंगा।वह संपादक थे- महान स्वतंत्रता सेनानी गणेश शंकर विद्यार्थी।